Wednesday, April 22, 2009

अब इतना भी क्या डेमोक्रेटिक होना............

जरनैल सिंह का जूता बौद्धिक हलको में उत्तेजना की अच्छी -खासी खुराक दे गया। 'मोड ऑफ़ प्रोटेस्ट' पर ढेर सारी बातें हुईं । पर एक बात पर तो भाई लोग लगभग एकमत दिखे की विरोध का यह लोकतान्त्रिक तरीका तो कतई नहीं है ।जरनैल सिंह ने भी घबराकर बाद में इसे भावुक प्रतिक्रिया भर बताया । पर क्या वाकई इस तथाकथित लोकतंत्र में विरोध की जगह इतनी सिमट गई है की एक सांकेतिक जूते का फेंका जाना उसमे जगह नहीं पा सकता ? अगर लोकतंत्र के पहरुओ को यह प्रतीकात्मक हिंसा बर्दाश्त नही तो फिर मुर्दाबाद के नारे क्यो लगें ,पुतले क्यो जलाये जाएँ ? यह भी तो प्रतीकात्मक हिंसा है । तो फिर क्या है विरोध का लोकतान्त्रिक तरीका ? जंतर -मंतर पर भूख -हड़ताल करना ? मेधा पाटेकर की उम्र गुजर गई अनशन करते -करते । एक मांग सत्ता ने मानी उनकी ? इरोम शर्मीला दशको से अन्न छोड़े बैठी है । पर आज भी उत्तर -पूर्व में AFSPA लोगो को दुसरे दर्जे का नागरिक बनाये हुए है । तो सत्ता ने कौन से तथाकथित लोकतान्त्रिक विरोध के तरीके छोड़े है मेरे लिए ? यदपि चिदंबरम साहब ने इसे भावुक कृत्य बताकर अपनी कुलीन शालीनता से पत्रकार को माफ कर दिया पर पर क्या वो बताएँगे की सोच समझ कर और पुरे होशोहवास में कोई ऐसा क्यो नही कर सकता ?
Enron के भूतपूर्व वकील श्री पी .चिदंबरम ने वेदांता कारपोरेशन की २००३ में वित्त मंत्री बन्ने से पहले तक मुंबई हाईकोर्ट में पैरवी की । इस कंपनी ने सरकार से बोक्साईट के उत्खनन के ठेके लेकर नियमगिरि पहाडियों में बसे हुए डोंगरिया खोंड आदिवासियों के विस्थापन का अभियान चला दिया । उल्लेखनीय है की आदिवासियों से उनकी एकमात्र संपत्ति ,उनकी जमीं लेकर जो बोक्साईट निकलना था उससे चौकलेट और बिस्किट के रैपर बनाये जाने थे । आज उन आदिवासियों का एकमात्र सहारा इलाके में सक्रिय माओवादी हैं जिन्होंने कंपनी के खिलाफ अभियान चला रखा है । विकास के नाम पर चिदंबरम साहब को आज भी वेदांता का निर्ल्लज बचाव करने में कोई संकोच नही है । इनके वित्त्मंत्रित्व काल में विदर्भ और देश के अन्य हिस्सों में हुई किसानो की आत्महत्याएं आज भी जारी है । तो चिदंबरम साहब ,किसी के जूते का निशाना आपका मुंह भी हो तो कम से कम वह लोकतंत्र का दोषी तो नहीं हो सकता ।
साम्राज्यवाद के इस दौर में लोकतंत्र पुरी दूनिया में एक 'सक्रिय विश्वास '(conviction) की जगह 'आस्था '(faith) का रूप लेता जा रहा है । पर हम यह नहीं भूल सकते की दुनिया की सारी महान लोकतान्त्रिक क्रांतियाँ आस्था को किनारे रख कर ही की गई है । पर इस पूंजीवादी लोकतंत्र के पैमाने पर तो फ्रांस और रूस की महान क्रांतियाँ अपराधिक कृत्य लगने लगेंगी ।
(जूता -प्रकरण पर मेरी प्रतिक्रिया कुछ देर से है, पर चूँकि मैं प्रोफेशनल बौद्धिक नहीं हूँ इसलिए पूंजीवादी मशीनीकरण के दौर में किसी सामयिक मुद्दे पर एकाध हफ्ते बाद भी रुक कर सोच लेना मेरे लिए उपलब्धि ही है क्योकि अधिकांश लोगो यह भी नही कर पा रहे । )

Thursday, April 16, 2009

कलाकार पतित हो सकता है,पर कला तो नहीं!

क्या कलाकार की सामाजिक जिम्मेदारी का कोई सम्बन्ध उसकी कला से होता है ?क्या कलाकार के कृत्यों को उसकी कला के चश्मे से देखना चाहिए ?यहाँ कलाकार से मेरा आशय थोड़ा व्यापक संदर्भो में है । साहित्य ,सिनेमा आदि कई छेत्रों को मै कला के दायरे में ले रहा हूँ। उदाहरण के लिए ,हम मान लेते हैं की स्त्री -प्रश्नों पर लिखने वाला कोई साहित्यकार है जिसने बड़ी संवेदनशीलता से स्त्री विषयक प्रश्नों को पाठको के सामने उठाया है। अब यदि यह साहित्यकार किसी दिन बलात्कार का दोषी पाया जाता है। तो ?उसके इस कृत्य को हम किस तरह देखेंगे? क्या हम उसके इस कृत्य का मूल्यांकन उसकी कला से स्वतंत्र होकर कर पाएंगे ?आम तौर पर नही। हमारा आम नजरिया कलाकार से बड़ी भूमिका और जिम्मेदारी की अपेछा रखता है । हम सोचते हैं की ऐसे लोगों को तो और कड़ी सजा होनी चाहिए ।हम उसे एक ऐसे शिछक के रूप में देखते हैं जो वहीँ गलतियाँ करता है जिसके परिष्कार की अपेछा उससे की जाती है । पर क्या कला इतनी एकांगी होती है ?क्या कला सिर्फ हमारे विचारों को प्रतिबिंबित करती है ? क्या किसी सृजन में प्रतिभा ,परिस्थिति ,और तत्कालीन समय का कोई योगदान नही होता ?इससे भी बड़ा सवाल यह है की क्या कला किसी की बपौती होती है ?शायद नही । कला तो सभ्यता की सम्पति होती है । तो फिर कलाकार के बहाने कला को खारिज करने का हमें क्या अधिकार है? अपराध की गुरुता को बढाकर देखते हीं हम अंतर्मन में अपराधी की कला को एक ढोंग की श्रेणी में रख देते हैं । पर मै फिर कहूँगा की कला किसी की बपौती नहीं ,और रचना प्रक्रिया विचारों से स्वतंत्र भी हो सकती है ।यह बिल्कुल संभव है की किसी तथाकथित अनैतिक साहित्यकार का साहित्य मूल्यों के नए मानदंड स्थापित करे । कलाकार और मूल्य ,दोनों समय के सापेछ हैं,पर कला शाश्वत है। मै इस प्रश्न के सहारे शायद सामाजिक नैतिकता को कटघरे में खड़ा कर रहा हूँ पर समाज की और प्रकारांतर से मेरी भी विचार प्रक्रिया पर बहस की गुंजाईश बने तो मुझे कोई हर्ज नही दीखता । दूसरी बात यह है की इस प्रश्न के सहारे मै कोई फतवा नही दे रहा हूँ बल्कि बहस के कुछ नए बिन्दु ,अगर बन सकें तो, बनाने की कोशिश कर रहा हं ।
एक जटिल विषय को आसन तरीके से प्रस्तुत करने की मैंने पुरी कोशिश की है पर शंकाओं के समाधान के लिए मै हमेशा प्रस्तुत हूँ ।

Tuesday, April 14, 2009

असहमत होने के खतरे !

बहादुर सोनकर की हत्या वस्तुतः किसी दलित की मायावती और उनकी तथाकथित मनुवादी विरोधी पार्टी से असहमत होने का नतीजा है । यह हत्या जहाँ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का मखौल है वहीँ यह आम आदमी की लोकतंत्र में आस्था को कमजोर करेगी । यह मायावती के मनुवाद विरोध की पोल खोलता है। वैसेमायावती ख़ुद भी सामंतवादी प्रतीकों के प्रति अपने प्रेम को बड़ी ठसक से जगजाहिर करती हैं । बसपा का वोट बैंक सबसे मजबूत माना जा रहा था ऐसे में कोई दलित ख़ुद कैसे इसमे सेंधमारी कर सकता है ?बसपा की असुरछा की यही वजह बहादुर की हत्या का कारन बनी ।

लोकतंत्र ? के महापर्व में आहुति

उत्तर प्रदेश के जौनपुर लोकसभा सीट से इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार बहादुर सोनकर को घर से अगवा कर उनकी हत्या कर दी गई और शव को उनके घर के पास स्थित एक पेड़ पर लटका दिया गया। मै स्तब्ध हूँ। विचारो का एक बवंडर सर में घूम रहा है और मै कोई एक सूत्र पकड़ने में असफल हो रहा हूँ जिसके सहारे इस घटना की व्याख्या कर सकूँ। हत्या का आरोपी एक सवर्ण बाहुबली है जो एक दलित महारानी का अनुचर और उसी छेत्र से उनका उम्मीदवार भी है। तो क्या दलित सोनकर इस बाहुबली के महारानी से अनुग्रह स्वरुप प्राप्त दलित वोट बैंक में सेंध लगा रहे थे ? क्या महापर्व की कौशल परिच्छा में सोनकर का प्रवेश कर्ण की तरह अनाधिकृत और अवांछित था ?
सत्ता की बन्दूक किराये पर ले कर गुंडे हमारी आस्था पर डाके डाल रहे हैं । लोकतंत्र के साथ बिस्तर में अय्याशियाँ कर रहे हैं। पर यह लोकतंत्र के साथ बलात्कार नही है । लोकतंत्र शायद एक वेश्या हो गई है जो रोज ब रोज बिकने को मजबूर है। व्यवस्था ने मेरे लिए सारे दरवाजे बंद कर दिए है और कोई है जो मेरे वोट के बदले सत्ता पा कर मेरे लिए चोर दरवाजे खोलने का वादा कर रहा है । मै उसे वोट न दूँ ? क्या मतदान के वक्त मेरे चयन की स्वतंत्रता एक अदृस्य आदेश में नही बदल गई है ? मेरे मित्र कह रहे हैं की वोट दे कर अपने चयन की असफलता में तो भागी बनिए । पर यथास्थिति के खिलाफ प्रतिक्रिया दे कर और उसकी ढेर सारी कीमत चुका कर जो लोग कंधे पर बन्दूक लटकाए वोट बहिष्कार का नारा दे रहे हैं उन्हें वोट डालने को कहने में मै हिचक रहा हूँ ।
महापर्व पर विचार ,सुझाव और प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ।

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